हिन्दी साहित्य के इतिहास के बारे में मेरी धारणा काफी कुछ वैसी ही बनती जा रही है जैसी कि अपने बचपन के दिनों की अपनी पारिवारिक तस्वीर के बारे में बन गई है। मैं अपने बचपन की पारिवारिक तस्वीर देखकर सबसे पहला सवाल करती हूँ कि इसमें मैं कहाँ हूँ? जाँच-पड़ताल पर पता चलता है मैं उसमें नहीं हूँ। आखिर मैं उसमें क्यों नहीं हूँ? क्या यह अनायास है? मेरे वहाँ न होने से मेरा वजूद तो खत्म नहीं हो जाता। फिर सोचती हूँ कि मैं तब कहाँ हो सकती हूँ और फिर इससे शुरू होता है सवाल-दर-सवाल का सिलसिला। वैसी ही हालत हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्री और स्त्री के प्रश्न पर सोचते हुए होती है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर स्वाभाविक रूप से जो होनी भी चाहिए, मेरी जिज्ञासा स्त्री की खोज से आरम्भ होती है - हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्री कहाँ है? अगर वह नहीं है तो क्यों नहीं है? अगर वह है तो किस रूप में है? इस रूप में है तो ऐसी क्यों है? वास्तविक तथ्यों और हिन्दी साहित्य के इतिहास में दर्ज तथ्यों में इतना फासला क्यों है? और फिर सवालों का एक लम्बा सिलसिला। सब सवालों के बाद और महत्वपूर्ण बात जो बची रह जाती है कि क्या स्त्री को उसका अतीत, उसकी परम्परा, उसकी स्मृति और उसकी पहचान वापस मिलना व्यर्थ की बात है या जरूरी है? और यह कैसे सम्भव है?
सबसे पहली जरूरत है तथ्यों की परख। आज भी हिन्दी साहित्य का इतिहास-लेखन अपनी मूल धारणाओं में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से आगे नहीं जा पाया है। रामचन्द्र शुक्ल से पहले के इतिहास ग्रंथ भले ही तथ्यों के संकलन भर हों, पर 'स्त्री' के नजरिए से सोचते समय ये ग्रंथ भी महत्व रखते हैं, क्योंकि स्त्री भी एक तथ्य है। आचार्य द्विवेदी तक के अधिकतर इतिहास ग्रंथ स्त्री को पहचानने के सम्बन्ध में एक साफ-सुथरा-सा गणित रखते हैं। वे जब किसी पुरुष कवि या लेखक को पहचानते हैं तो उसकी जाति और उपजातियों में बात करते दिखते हैं, वहीं एक स्त्री लेखक को पहचानते समय पुरुषों के साथ उसके सम्बन्धों में बात करते हैं : अमुक लेखिका अमुक की पत्नी थी, अमुक की उपपत्नी थी, अमुक की बेटी या बहन या शिष्या थी (और अपने आप में कुछ नहीं थी)। जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के जटिल समीकरण का यह खेल बहुत गहरे पैठ कर खेला गया जिसने आधी आबादी की प्रतिभा, ज्ञान, अनुभव और क्षमता को या तो हड़प कर लिया या नष्ट होने के लिए अँधेरे में छोड़ दिया। गार्सां द तासी अकेले इतिहासकार हैं जो इन मामलों में सजग हैं। अपने 'इस्त्वार' की भूमिका में ही वे रजिया सुल्तान को भारत के देशवासियों की प्रिय सुल्ताना कहकर स्त्री की भूमिका और इतिहास लेखन में उसके स्थान की जरूरत को रेखांकित कर जाते हैं। इन्होंने 'इस्त्वार' में अच्छी संख्या में स्त्रियों को जगह दी है, जबकि अधिकतर इतिहासकारों ने स्त्रियों को अधिक से अधिक किसी काल की अन्य प्रवृत्तियों में स्थान दिया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आरम्भ के सवा सौ पृष्ठों में एक जगह स्त्री प्रसंग की चर्चा की है कि सास-ननद के लाख समझाने के बाद भी स्त्रियाँ कापालिकों के प्रति उसी तरह से आकर्षित होती थीं जैसे कृष्ण के प्रति गोपियाँ। आचार्य के इस मत से कम से कम तीन तथ्यों पर बात होने की गुंजाइश बनती है - 1. स्त्रियों का कापालिकों के प्रति आकर्षण एक समस्या थी। 2. कृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम इस कापालिक प्रेम के विकल्प के रूप में प्रस्तावित किया गया। 3. आकर्षण के बाद इन स्त्रियों का क्या हुआ? सिद्धों की सूची में लगभग सभी प्रमुख इतिहासकारों ने कुछ योगिनियों के नाम दिए हैं। मजेदार बात है कि ये सिद्ध अधिकतर कवि हैं और कोई भी योगिनी कविता करना नहीं जानती। किसी की भी एक पंक्ति उदाहरण के रूप में आज तक सामने क्यों नहीं आई?
हिन्दी साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास लिखने वाले आचार्य शुक्ल की सबसे बड़ी कामयाबी इस बात में रही कि उन्होंने हिन्दी जनमानस में इस बात को पूरे विश्वास के साथ बैठा दिया कि यहाँ की स्त्रियाँ मानसिक विकास में सामान्य से निचले स्तर की रही हैं। उन्होंने एक जगह लिखा है, 'नाथ सम्प्रदाय भी जब फैला तब उसमें भी जनता की नीची और अशिक्षित श्रेणियों के बहुत-से लोग आए जो शास्त्र-ज्ञान सम्पन्न न थे जिनकी बुद्धि का विकास बहुत सामान्य कोटि का था।' इनमें कम से कम इतनी बुद्धि तो रही कि आचार्य को इनका नाम लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, तब स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता आचार्य जी की नजरों में क्या होगी कि उनका नाम लेना भी वे उचित नहीं समझते? यही वजह है कि इतिहासकारों को स्त्रियों में रचनात्मकता के कोई तत्व ही नहीं मिलते। दक्षिण भारतीय स्त्री आन्दाल (सातवीं-आठवीं सदी) और हिन्दी की मीरा (पंद्रहवीं सदी) जैसी कवयित्रियाँ क्या अचानक बिना किसी स्त्री लेखन की परम्परा के पैदा हो सकती थीं?
बीसवीं सदी के पूर्वाध तक काव्य के स्रोत के रूप में दो ही मतों की चर्चा रही है : 1. दैवीय उत्पत्ति 2. अभ्यास। अधिकतर विवेचकों के नजरिए में यही आधार रहे हैं। यदि इन्हीं को मानकर बात आगे बढ़ायें तो स्त्रियों पर दैवीय कृपा और गुरु अनुकम्पा (अभ्यास) दोनों का अभाव साफ दिखाई देता है, जिसके फलस्वरूप स्त्री रचनाकारों के सामने आ पाने में बडे रोड़े रहे। हिन्दी साहित्य के आदि काल में अभी तक प्राप्त इतिहासों में सिद्ध साहित्य में तीन योगिनियों के नाम मिलते हैं, इनकी कोई भी रचना के बारे में चर्चा कहीं नहीं है। आदि काल का साहित्य फलक काफी व्यापक है। इतना लम्बा समय और इतनी विविध प्रवृत्तियों के बीच किसी स्त्री लेखक का न पाया जाना अभी तक किए गए पाण्डुलिपियों सम्बन्धी खोज अभियान पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने का पर्याप्त कारण है। आदि काल में स्त्रियों द्वारा की गई रचनाएँ न मिलने के तर्क को हिन्दी आलोचक कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं - 'स्त्रियों के लिए यह आवश्यक न था कि वे वीर काव्य गाते हुए रणांगण में आवें। उनका एक अनिवार्य कर्तव्य यही रह गया था कि वे विजयश्री को देखकर प्रमोदामोद से वीर पुरुषों की आरती उतारें या पराजय-कालिमा को देखकर शत्रुओं के अनाचार प्रारम्भ से पूर्व ही जौहर आदि के द्वारा देश और समाज की लज्जा की रक्षा करते हुए अपने पंचभौतिक-पिंजर से प्राण पखेरुओं को निकालकर स्वर्गारोहण करें...यही मुख्य बात है कि जय काव्य काल में स्त्रियों ने साहित्य रचना के क्षेत्र में कार्य नहीं किया।' यह तर्क सिरे से ही अतार्किक है और यह एहसास दिलाता है कि जैसे पैदा होने से मरने तक जौहर, सतीत्व, वीरपूजा के अलावा स्त्री कोई और जीवन जीती ही नहीं थीं।
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में नाभादास कृत भक्तमाल में कवियित्रियों की एक सूची है - 'सीता, झाली, सुमति, शोभा, प्रभुता, उमा, भटियानी गंगा, गौरी, कुंवरि, उबीठा, गोपाली, गणेश देवरानी, कला, लखा, कृतगढ़ी, मानुमती, सुचि, सतभामा, जमुना, कोली, रामा, मृगा, देवा, देभक्तन, विश्रामा, जुग जेवा कीकी, कमला, देवकी, हीरा, हरिचेरी पोषे भगत कलियुग युवती जन भक्त राज महिमा सब जाने जगत।' ये युवती भक्तजन हैं। भक्तों में प्राय: सभी साहित्य के साथ सरोकार रखते हैं, जैसी भी हो सभी कविता करते हैं, कुछ काव्य वैशिष्ट्य के कारण भक्ति काल के स्तम्भ रचनाकार हैं, शेष भी हैं, फिर स्त्री भक्तजन बिना काव्य सर्जना के मन्दिरों में भगत सेवा करने में लीन रह गई हों, यह कैसे हुआ? इनमें से कुछ कवयित्रियों की ही रचनाएँ अभी तक जानकारी भर में आती हैं, अभी प्रकाशन की बेला दूर है।
मीरा के काव्य व्यक्तित्व को दबा पाना सम्भवत: इसलिए आसान नहीं रहा होगा क्योंकि उनका व्यक्तित्व मठवाद के दायरे से बाहर था, उनकी अधिकतर कविताएँ राजस्थान और आसपास की निम्न जातियों के लोगों में घर-घर गाई जाती रहीं और उसके संकलन का आधार भी यही लोग बन पाए और यह भी कि मीरा का जिक्र तत्कालीन सभी भक्तों की रचनाओं में मिल जाता है। भक्ति काल की कवियित्रियों की रचनाएँ आरम्भिक तौर पर इसी मठवाद का शिकार होने के कारण, द्वितीयक रूप में अन्य कारणों से गुमनामी के अँधेरे में हो सकती हैं।
भक्ति काल का समय अपेक्षाकृत रूप से क्रियाशीलताओं का दौर हैं जहाँ पुरानी रूढ़ परिपाटियों पर प्रहार करना कोई बहुत कठिन समस्या नहीं है। न केवल निम्न जातियों के लोग अपनी सामाजिक समस्याओं पर भक्ति के ढाँचे के भीतर प्रखर शब्दों में सामने रख रहे थे, बल्कि स्त्रियाँ भी अपनी निहायत निजी व्यथाओं को कहने से नहीं हिचकिचा रही थीं। मीरा का काव्य इसका प्रमाण है। भक्ति काल की दूसरी कवयित्रियों ने जो रचनाएँ कीं उनके बारे में इतना तो कहा ही जा सकता है कि केवल उन्हीं रचनाओं का जिक्र अभी तक किया जाता है जो कि पितृसत्ताक दर्शन के ढाँचे में अधिक से अधिक फिट हों।
भक्ति काव्य में स्त्री रचनाओं के निर्धारण में अभी तक उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। कबीर से ही बात शुरू करें। कबीर के साथ-साथ लोई भी कविताएँ लिखती थीं लेकिन लोई की रचनाएँ कहाँ गईं? कबीर की रचनाओं को संकलित करने वाले लोई की रचनाएँ भी संकलित कर सकते थे, पर ऐसा क्यों नहीं हुआ? बहुत सम्भव है कि कबीर के नाम से मिलने वाली बहुत सारी रचनाएँ लोई की हों। तुलसीदास के साथ-साथ रत्नावली भी कवि थी, पर हिन्दी साहित्य के अभी तक के इतिहास उनके अस्तित्व को नहीं दर्ज करते हैं। भक्ति काव्य में एक बड़ी समस्या यह है कि भक्ति ने पुरुषों के भीतर एक स्त्री बिठा दी है, जिससे अपने ईश्वर के आगे उनका अपना अस्तित्व पाले बदलता दिखाई देता है - कभी वे स्त्री हो जाते हैं और कभी पुरुष। इस झमेले से स्त्रियों की कविताएँ पुरुषों की कविताओं में आसानी से खप जाती रही होंगी। बहुत सम्भव है कि इस खप जाने के कारण भी स्त्रियों की कविताओं का अस्तित्व पर्दे के पीछे रह गया हो।
हिन्दी साहित्य का रीति काल फरमानी तौर पर दरबारी संस्कृति का काव्य है। इस युग की कविता या तो दरबारों में पली-बढ़ी या तो मठों में। दरबारी काव्य में शास्त्रीय काव्यांग विधान की शिक्षादीक्षा का आधार स्त्री के माध्यम से, उसके अंग-प्रत्यंग के वर्णन के माध्यम से बना। इस समय में ऐसी स्त्रियों की संख्या काफी है जो कविताएँ लिखती थीं। सावित्री सिन्हा ने अपने शोधग्रंथ 'मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ' में इस काल की कवयित्रियों की लम्बी सूची दी है। हिन्दी के एक तरह के आलोचकगण पितृसत्तावादी संस्कारों के आधार पर रीति काव्य की बुराई करते हैं और उसके स्थान पर मातृत्व और भगिनित्व के आदर्श की दुहाई देते (रीतिवादी काव्य में माता और भगिनी वाला रूप महत्वपूर्ण नहीं है, नायिका भेद वाला रूप ही महत्वपूर्ण है) नहीं थकते हैं तो दूसरी तरह के विद्वान रस, छन्द, अलंकार आदि के आधार पर रीति काव्य को कविता का स्वर्णयुग बताते चलते हैं। रीति काल की पुनर्व्याख्या के प्रस्तावक स्त्री के दुख को लेकर अधिक से अधिक यह ध्यानाकर्षित कर पाते हैं कि खंडिता नायिका की स्थिति पर विचार होना चाहिए, अन्यथा रस लाओ-रस हटाओ, रीति काव्य को हिन्दी साहित्य से ही भगाओ जैसे ओजस्वी विचार ही सामने आते हैं। लेकिन ये विद्वान स्त्री कवयित्रियों की कविता पर बात करने में एक गहरी चुप्पी लगा जाते हैं। रीतिवादी साहित्य को साहित्य की परम्परा का अंग बनाने के लिए व्याख्या के परम्परावादी-पवित्रतावादी तर्क या कलावादी सौन्दर्यानुभव का फार्मूला या यथास्थितिवादी नवीनता का तर्क अथवा दूसरे उपलब्ध विवाद कारगर नहीं हैं, बिना स्त्री के सवाल पर, सामाजिक स्थितियों के सवाल पर ठोस बात किए साहित्य की परम्परा तय नहीं की जा सकती। हिन्दी साहित्य की परम्परा को ठीक से निर्धारित करने के लिए तत्कालीन दौर के स्त्री साहित्य को पढ़े जाने की जरूरत है। यह साहित्य बहुनायकत्व और उससे उपजी तमाम स्त्री विरोधी प्रवृत्तियों से प्राप्त दंश की देन है। सेख की एक कविता देखिए - आवन कौ नाम सुन ,सावन किये हैं नैना आवन कहै सु कैसे आइ जाइ छीजिये। बरबस बस करिवे को मेरो बस नाहीं, ऐसी बैस कहो कान्ह कैसे बस कीजिये॥ हालाँकि तत्कालीन समय के काव्यास्वाद के आधार दूती प्रकरण, परकीया तंत्र, संकेत आदान प्रदान प्रणाली का मायाजाल इस पूरी कविता की संवेदना को मटियामेट कर सकते हैं, लेकिन स्त्री की सामाजिक स्थिति का ज्ञान और उन अनुभवों को समझने की क्षमता इस मायाजाल पर फिर भी भारी है।
इतिहास लेखन में अब तक इस प्रवृत्ति का सहारा लिया गया कि किसी पुरुष कवि के विवरण के साथ ही उससे सम्बन्धित स्त्री का उल्लेख भर कर दिया जाता रहा है। कई बार किंवदन्तियों के आधार पर उन स्त्रियों का चरित्र निर्धारण करने तक का प्रयास भी दिखाई देता है। ऐसा करने में इतिहासकारों की एक खास मानसिकता दिखाई देती है। रीति काल में घनानन्द और सुजान का काव्य और सम्बन्ध इस प्रश्न की दृष्टि से विचारणीय है। उनकी कविता में घनानन्द नाम की छाप जिनमें हैं वे कविताएँ भी घनानन्द की हैं और सुजान नाम की छाप वाली कविताएँ भी घनानन्द की ही हैं। भाव रूप लिंग भेद के दायरे को स्पष्ट विभाजित नहीं करता, फिर भी तर्कजाल घनानन्द के ही पक्ष में क्यों खड़ा होता है? उसके कारण को समझने के लिए आचार्य शुक्ल के इस कथन को पढ़ना जरूरी है - 'इन्होंने अपनी कविताओं में बराबर सुजान को संबोधित किया है जो श्रृंगार में नायक के लिए और भक्तिभाव में भगवान कृष्ण के लिए प्रयुक्त मानना चाहिए। कहते हैं कि इन्हें अपनी पूर्व प्रेयसी सुजान का नाम इतना प्रिय था कि विरक्त होने पर भी इन्होंने उसे नहीं छोड़ा।' तर्क संरचना ने एक वाक्य में कितने पहलू बदले हैं ,यह तो स्पष्ट है ही उनके आगे लिखे कथन से इसका कारण भी साफ पता चलेगा।
आलम के बारे में डॉ. नगेन्द्र के संक्षिप्त इतिहास में मिलता है कि 'शेख आलम का ही जातीय नाम था। वही अपनी छाप यथावश्यक कभी आलम कभी शेख रख देता था। रंगरेजिन की कहानी या तो मनगढ़न्त है…।' इन आलोचकों का तर्क अपने भीतर यह मान्यता लिये रहता है कि स्त्री निजी सम्पत्ति है तो उसकी कविता भी हड़पने योग्य है। परम्परागत तर्क जब तक यह नहीं साबित करेगा कि सम्पत्तिधारक श्रेष्ठ है, या पुरुष की काबिलियत स्त्री से अधिक है अथवा जाति के उच्चतम पायदान पर स्थापितों के बीच प्रतिभा का स्तर उच्च होता है, साहित्य क्षेत्र में आने वाली स्त्रियाँ अधिकतर सामाजिक प्रतिष्ठा में अपना स्थान निम्नतम रखती हैं, तब तक परम्परागत ढाँचे को बनाए रखना सम्भव नहीं है। स्त्रियों की कविताओं को पुरुषों की साबित करके या स्त्रियों के चरित्र को हीन और अविश्वसनीय बनाकर या उनकी रचनाओं पर चुप्पी साधकर या उनकी रचनाओं को अज्ञात लेखक की कविता कहकर या कवयित्रियों की पहचान कवि के रूप में बताकर अभी तक इसी परम्परागत उत्तरदायित्व का निर्वाह किया गया है।
आधुनिक युग का साहित्य विश्लेषण और भी दिलचस्प है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ही हिन्दी में स्त्रियाँ साहित्य रचनाएँ कर रहीं थीं। बंग महिला की 'दुलाईवाली' को हिन्दी की पहली कहानियों में जगह मिली और बीसवीं सदी में महिलाओं ने पत्रिकाएँ भी निकालीं, लेकिन 1950 से पहले के साहित्य इतिहास में जगह बनाने योग्य महिलाएँ महादेवी वर्मा के अलावा किंचित मात्र ही रहीं। प्रगतिशील कहे जाने वाले आन्दोलनों में एक भी स्त्री रचनाकार क्यों नहीं आई, यह प्रश्न गहराई से सोचने को विवश करता है।
हिन्दी साहित्य का अभी तक का इतिहास लेखन अपने भीतर से कई तरह से स्त्री को बाहर निकालता रहा है। अभी तक के इतिहासों में स्त्रियों के परिचय और उनके साहित्य की विशेषताएँ इस तरह से बताई जाती रही हैं। आचार्य शुक्ल ने मीरा का परिचय दिया है - 'ये मेड़तिया के राठौड़ रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं।' मीरा इस परिचय के अभाव में कुछ भी नहीं हैं। मोतीलाल मेनारिया ने सहजोबाई के बारे में लिखा है कि ये बाल ब्रह्मचारिणी थीं। इन्होंने गबरीबाई के बारे में लिखा है कि इनके माता-पिता अज्ञात हैं लेकिन जाति से नागर ब्राह्मण थीं। 'सरोज सर्वेक्षण' में प्रवीणराय का परिचय प्रवीणराय पातुर के रूप में दिया गया है। सभी के जीवन के बारे में इसी तरह की तमाम टिप्पणियाँ हैं। इतिहास में स्त्रियों की चर्चा के नाम पर उनके व्यक्तिगत जीवन पर रसपूर्ण चर्चाएँ की जाती रही हैं, पर रचनाओं के विवेचन की बारी आने पर अधिक से अधिक किसी रचना का नाम भर ले लिया गया है। यह प्रवृत्ति आधुनिक काल के विवेचन तक लगातार बनी रहती है - 'इसके उपरान्त बंग महिला का स्थान है जो मिर्जापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बाबू रामप्रसन्न घोष की पुत्री और बाबू पूर्णचन्द्र की धर्मपत्नी थीं।' यदि पुरुषों के परिचय और विवेचन के साथ इनकी तुलना की जाए तब पुरुषवादी निहितार्थ उभरकर सामने आने लगते हैं। ऐसे इतिहासों को भला स्त्रियों द्वारा स्वीकृति की उम्मीद क्योंकर करनी चाहिए? यही वह मसला है जो स्त्रियों द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखे जाने का पर्याप्त कारण है।
अभी तक लिखे गए हिन्दी साहित्य के इतिहासों की भाषा निहायत आपत्तिजनक है। भाषा के स्तर पर ये इतिहासकार स्त्री के सम्मान को करारा आघात पहुँचाते दिखाई देते हैं। आचार्य शुक्ल ने नागरीदास के विवेचन में बनीठनी पर मात्र एक पंक्ति लिखी है - 'वृन्दावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।' मानो बणीठणीजी का मुख्य काम उपपत्नित्व है, कविता तो 'भी' करने में आती है। मोतीलाल मेनारिया ने सुन्दरि कुंवरि बाई के बारे में लिखा है कि 'बाद में तो काव्य रचना का इन्हें ऐसा व्यसन पड़ गया कि जिस दिन थोड़ा बहुत भी लिख न लेतीं थीं इन्हें कल न पड़ती थी।' स्त्रियों के लिए कविता व्यसन है। 'ये जाति के ब्राह्मण थे पर शेख नाम की रंगरेजिन के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे।' हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस बात में एक शब्द का हेरफेर कर 'फँसकर' को 'पड़कर' लिखा है। मानो स्त्रियाँ माया की फाँस हों और मर्दों को फँसाना उनका एक मात्र काम हो। कई सन्दर्भों में इस बात का उल्लेख है कि स्त्रियों के कारण ही विरक्त होकर लोग कवि बने, पर इन स्त्रियों ने कभी ऐसी महान विभूतियों की प्रतिभा को नहीं पहचाना। तुलसीदास, नन्ददास, सूरदास, घनानन्द आदि कइओं के बारे में ऐसी किंवदन्तियाँ हैं। किसी भी इतिहासकार ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि तुलसी के छोड़ देने के बाद रत्नावली का क्या हुआ?
हिन्दी साहित्य के विवेचन में इन इतिहासकारों के प्रतिमान करीब-करीब एक जैसे ही हैं और वे अपने निहितार्थों में कम से कम स्त्री की नजर से अच्छे नहीं हैं। आचार्य शुक्ल हिन्दी साहित्य के आदि काल, जिसे वे वीरगाथा काल का नाम देते हैं, के विवेचन में बताते हैं कि इस काव्य में दो ही प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं - युद्ध और प्रेम। फिर इस प्रेम की व्याख्या करते हैं - 'किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हर कर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था।' उक्त प्रेम की परिभाषा में निहित भाव ऐसे जघन्य कृत्यों के प्रति भी सम्मान और वांछनीय उदाहरण की संरचना को निर्मित करने वाला है। आचार्य शुक्ल हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के विवेचन में लिखते हैं - 'आजकल तो स्त्री कवियों की कमी नहीं हैं, उन्हें अब पुरुष कवियों का दीन अनुकरण न कर अपनी रचनाओं में क्षितिज पर उठती हुई मेघमाला को दाढ़ी-मूँछ के रूप में देखना चाहिए।' यहाँ तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है - 1. रामचन्द्र शुक्ल यह बात तो स्वीकार करते हैं कि स्त्री कवियों की कमी नहीं हैं, पर वे स्त्री कवि और उनकी रचनाएँ क्या हैं, इस पर वे कुछ क्यों नहीं कहते? 2. स्त्री कवियों की कविता को पुरुष कवियों का दीन अनुकरण कहना उनके किस सोच का परिचायक है? 3. स्त्री कवियों के लिए कविता का सौन्दर्य विधान दाढ़ी-मूँछ के रूप में स्थापित करना कितनी सभ्यता है?
यहाँ विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि ये लोग तत्कालीन समय में महिला की चिन्ता को लेकर जितनी तरह के नवीनतम तथ्य थे सबसे वाकिफ थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो महिला आन्दोलन की बात भी लिखते हैं। उदयशंकर भट्ट के 'अम्बा' नाटक पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, 'अम्बा नाटक में भीष्म द्वारा हरी हुई अम्बा की जन्मान्तर व्यापिनी प्रतिकार वासना के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की वह विषमता भी सामने आती है जो आजकल के महिला आन्दोलन की तह में वर्तमान है।'
क्या यह माना जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्रियों की उपेक्षा अनायास है? हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों द्वारा निर्धारित साहित्य की विवेचना के अब तक के प्रतिमानों पर एक नजर डालें। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा बनाए गए प्रतिमानों का मूलाधार पितृसत्तावादी सामाजिक मान्यताओं की स्वीकृति है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के 'लोकधर्म' और 'लोकमर्यादा' के प्रतिमान प्रथमत: शिक्षित जनता की चित्तवृत्तियाँ होने के नाते अपने दायरे के स्त्री समुदाय, जो अधिसंख्यक रूप में अपढ़ है, को बाहर कर देते हैं। द्वितीयत: इनकी अंतर्वस्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मन्तव्यों में पूरह तरह पुरुषवादी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रतिमानों का मूलाधार है रामचरितमानस और राम के जीवन के प्रतिमान। इसी राम के प्रति स्त्री का रवैया इस गीत में देखा जा सकता है- अइसने पुरुखवा क मुँहवों न देखतीं, फटती धरतिया समाईं।आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का काव्य प्रतिमान 'भारतीय चिन्ताधारा' स्त्री समुदाय की चिन्ताओं से सरोकार नहीं रखता। स्त्री के प्रति उनके रवैए को उनकी 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में निपुणिका और बाण के चरित्रों के जरिए साफ-साफ देखा जा सकता है। भारतीय चिन्ता में स्त्री को अधिक से अधिक निपुणिका जैसा होने की जगह है। रामविलास शर्मा का 'लोक संघर्ष' का प्रतिमान लोक जागरण में मीरा की भूमिका को स्वीकार करने से लगातार रोकता है। डॉ. शर्मा के लिए मीरा के काव्य की एक मात्र विशेषता है पदों की 'गेयता' - यह गेयता ही है 'जिसने डगर की भिखारिन मीरा को' साहित्य में स्थान दिलाया। डॉ.शर्मा के लिए मीरा के काव्य में लोक संघर्ष की भाव भूमि और तुलसी के लोक संघर्ष का व्यापक फलक एक ही हैं। यह मीरा और तुलसी को एक फर्श पर बिठाना मात्र नहीं है, स्त्री मुद्दों के विशिष्ट क्षेत्र को खत्म करने की साजिश है। यही काम डॉ. शर्मा ने महादेवी वर्मा के सिलसिले में किया है, उनको वाल्मीकि, रवीन्द्र और महादेवी के काव्यानुभव और विचारबोध में कोई फर्क नहीं नजर आता। महादेवी के स्त्रीत्व को प्रथम कवि की महिमा की समकक्षता की रस्सी से फाँसी दे दी जाती है और सचेतक स्त्रियों को सोचने के लिए कुछ नहीं बचा रहता।
जरूरत इस बात की है कि साहित्यशासन पर पदासीन शक्तियों द्वारा इस तरह की पुरस्कार-नवाजी के मोहफाँस से मुक्त होकर बात की गहराई तक जाया जाए। डॉ. नामवर सिंह के 'नये प्रतिमानों' में स्त्री को सिरे से खारिज किया गया है। साहित्य की चिन्ताओं के लिए आधी आबादी ने कभी कोई 'तनाव' पैदा किया हो, ऐसा इनके मन्तव्यों से नहीं लगता। डॉ. नामवर सिंह ने अपनी किताब 'छायावाद' में महादेवी को जितना स्थान दिया है वह अपने आप में एक बड़ा प्रमाण है। पूरी किताब में तीन-चार जगहों पर कुल मिला कर महादेवी की सत्ताईस पंक्तियों का उल्लेख है और वह भी छायावादी रूपविधान और भाषा संरचना पर बात करते समय। ऐसा करते समय हिन्दी के विद्वान आलोचकों के दिमाग में यह पूर्वग्रह ठोस रूप से घर किए रहता है कि कोई वैचारिक, तर्कपूर्ण और निर्णायक मत रखने की क्षमता स्त्रियों में नहीं पाई जाती। सम्भवत: इसीलिए स्त्रियों की चर्चा मजबूरन करनी पड़े तो गृहसज्जा तक उनकी भूमिका को उल्लेखित करते हैं, गृहनिर्माण में नहीं।
हिन्दी साहित्य के इतिहासों का मौजूदा स्वरूप स्त्री की अपनी पहचान को वापस दिलाने के लिए नाकाफी है। इस दायरे को इतना उलझा दिया गया है कि इस 'तस्वीर' में वह अपने आप को नहीं ढ़ूँढ़ नहीं सकती। पर तथ्यों का दायरा हमेशा इस बात की गुंजाइश रखता है कि उनके आधार पर एक नई और अधिक मौजूँ तस्वीर बनाई जाए।